Zenab rehan

लाइब्रेरी में जोड़ें

अठारहवाँ अध्याय




असल बात यह है कि आत्मज्ञानी कर्मों की परवाह करता ही नहीं कि वे क्या चीज हैं और कब कैसे हो रहे हैं। उनका परिणाम क्या होगा यह भी खयाल उसके दिल में भूलकर भी नहीं आता है। वह तो यही जानता है कि सृष्टि का अर्थ ही है, क्रिया, कर्म (action)। इसलिए जो कुछ होता है वह तो सृष्टि के इसी के नियम के अनुसार ही हो रहा है। इसमें मुझे क्या लेना-देना है? मैं क्यों नाहक इस बला में फँसने जाऊँ? जिसने यह सब कुछ बनाया है वह जाने, उसका काम जाने। इस प्रकार आत्मा को निर्लेप समझ के लोकसंग्रह के कर्मों को करते रहना ही उन कर्मों का भगवान या ब्रह्मात्मा में संन्यास है, अर्पण है, डाल देना है।

इसलिए अगले श्लोक यही बात बताते हैं कि भगवान कहीं बाहर नहीं है। न तो वह बैकुंठ या ब्रह्मलोक में है और न तीर्थों या मंदिरों में। वह तो अपनी आत्मा ही है। फलत: हृदय में ही बसता है। हृदय में बसने का भी यह अर्थ नहीं है कि हृदय उसका घर है। उसका पहला आशय तो यही है कि वह आत्मा से अलग नहीं है। दूसरा आशय यह है कि वह तर्क-दलीलों और युक्तियों से न जाना जाकर हृदय-ग्राह्य ही है। \'ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य धिष्ठितम्\' (13। 17) तथा \'सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:\' (15। 15) में भी यही बात कही गई है। केवल तर्क-दलीलों का आश्रय लेना नास्तिकता और निरीश्वरवाद में पहुँचा देता है और केवल हृदय अंधपरंपरा का भक्त बना देता है। इसीलिए यहाँ हृदयग्राह्य करने का तात्पर्य यही है कि तर्क-युक्ति की सहायता से रास्ता साफ करने के बाद हृदय से ही आत्मा-परमात्मा का ग्रहण होता है। मनु ने भी कहा है कि \'यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्मं वेद नेतर:\' (मनु. 12। 106) - \'जो तर्क से विचार करता है वही धर्म जानता है, दूसरा नहीं।\' यहाँ उच्छृंखल तर्क रोक के हृदय का साथी तर्क ही माना गया है। मनु ने तो तर्क को \'वेदशास्त्र का अविरोधी\' कहा है उसका यही तात्पर्य है। जिस हृदय ने ईश्वर को देख लिया उसमें अलौकिक शक्ति होती है, ऐसी कि दुनिया को हिला दे, डुला दे, चला दे। यह बात हम पहले बहुत विस्तार के साथ लिख चुके हैं। 61वें श्लोक का यही आशय है, न कि सचमुच हृदय में बैठ के ईश्वर मशीन की तरह चलाता है। इसलिए उसी हृदय को संपादित करना, हृदय को वैसा ही बनाना यही हमारा काम है।

इस श्लोक का यह भी आशय है कि हृदय में जिस परमात्मा का स्वरूप व्यक्त होता है वह मनुष्य को चलाता है उस हृदय के ही बल से। जहाँ हृदय जा लगा वहाँ पहुँचना टल नहीं सकता। हृदय में वह ताकत है जो और कहीं नहीं है। हिरण बाँसुरी का शब्द सुन के अपने आपको भूल जाता है। साँप भी सँपेरे की बीन की आवाज से मुग्ध हो जाता है। इसी से शिकारी और सँपेरा उन दोनों को आसानी से पकड़ लेते हैं। उनके हृदय के ही चलते यह बात हो जाती है। उसका स्वभाव ही है। और जब क्षत्रिय का हृदय स्वभावत: युद्ध में ही रहता है, वहीं फँसा होता है, तो फिर अर्जुन हजार कोशिश करे, मगर वह रुकेगा कैसे? वह तो युद्ध में जाएगा ही, लड़ेगा ही। भगवान ही हृदय में बैठ के ऐसा करता है इस कहने का आशय \'मयाऽध्यक्षेण प्रकृति:\' (9। 10) में बताई चुके हैं। उनके बिना जब प्रकृति कुछ करी नहीं सकती, तो हृदय तो उसी का रूप है न? फिर वह बिना भगवान के कैसे करेगा? इस प्रकार हृदय में भगवान के रहने का बहुत विस्तृत आशय इस श्लोक में व्यक्त हो जाता है।

जो लोग \'अहं\' \'मम\' आदि शब्दों को आत्मा के अर्थ में न लगा के एक निराले ही ईश्वर में लगाते, उसे सर्वशक्तिमान मानते और जीव को उसका स्वरूप न मान के सेवक मानते हैं, उनसे हमारा अनुरोध है कि वे बृहदारण्यक उपनिषद् के चौथे अध्‍याय का तीसरा ब्राह्मण पूरे का पूरा पढ़ जाएँ और देखें कि उसमें आत्मा का ही निवास हृदय में स्वयं-ज्योतिरूप में लिखा गया है या नहीं, सृष्टि का बनाने-बिगाड़ने वाला उसे कहा गया है या नहीं और उसके सिवाय कोई दूसरी वस्तु हई नहीं है, यह बार-बार दिखाया गया है या नहीं। वहीं यह भी लिखा गया है कि वह स्वयं-ज्योति है, उसका प्रकाशक कोई नहीं और जैसे ही सपने में वैसे ही जगने में सारी चीजें अपनी ही शक्ति से बनाता और देखता है, लीला करता है, सभी जगह विहरता-विचरता है, मौज करता है। यह भी वे लोग देखें। \'ध्यायतीव लेलायतीव\' लिखा गया है जिसका अर्थ है, कि सभी लीलाएँ करता है।

जब उस ब्राह्मण के शुरू में ही जनक ने याज्ञवल्क्य से पूछा है कि इस आत्मा के मददगार प्रकाश कौन-कौन से हैं - \'किंज्योतिरयं पुरुष:\'? (3। 1), तो याज्ञवल्क्य ने, जितने भी उजाला करने वाले या पथदर्शक संभव हैं उन्हीं सबों को पहले गिना के कहा है कि एके बाद दीगरे इन्हीं से उसका पथदर्शन होता है। सबसे पहले सूर्य की ही प्रचंड ज्योति से उनने शुरू किया है। मगर रात में तो वह ज्योति मिलती नहीं, ऐसा कहने पर चंद्रमा का नाम लिया है। लेकिन कृष्णपक्ष की अँधियारी और अमावस्या में? तब तो चंद्र होता नहीं। अत अग्नि के प्रकाश, दीपक आदि से ही काम चलता बताया है। तो निरे अँधेरे में, जहाँ दीपक भी न हो, क्या काम बिलकुल ही बंद हो जाता है? अँधेरे में भी तो लोग दूर से बातें सुन के ही जान जाते हैं कि कौन-सा आदमी है। जबान से रास्ते की बात सुनके वैसे ही चलते भी हैं। इसीलिए बात या शब्द को ही उस समय प्रकाशक और पथदर्शक मानना पड़ा है। मगर जब नींद के समय आत्मानंद का अनुभव करता है और उठने पर याद करता है कि बड़े आनंद से सोए थे, तब वहाँ कौन-सा प्रकाश रहता है, जो आनंद को दिखाता है? और अगर अनुभव न करता तो उठने पर फौरन ही उसे याद क्यों करता? जिसका अनुभव न हो उसका तो स्मरण होता नहीं। इसलिए शरीर के भीतर सुषुप्ति या गाढ़े नींद में आनंद का अनुभव मानना ही पड़ता है। इसी प्रकार सपने में जानें क्या-क्या देखता-सुनता है। हजारों चीजें देखी जाती हैं, यह तो सभी मानते-जानते हैं। मगर वहाँ भी न तो शब्द ही हैं और न सूर्य आदि ही हैं। फिर वहाँ कौन-सा प्रकाश है, सो भी भीतर शरीर में? इसी का उत्तर दिया है कि \'आत्मैवास्य ज्योतिर्भवतीत्यात्मनैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीति\' (4। 3। 6)।

इसका आशय यही है कि \'उस समय मनुष्य की आत्मा ही ज्योति का काम करती है और वह उसी के बल से बैठने, जाने, आने-लौटने और अन्य सभी कामों में लग जाता है\' इस पर प्रश्न हुआ है कि वह आत्मा है कौन-सा? \'कतमोऽयमात्मा?\' (4। 3। 7)। क्योंकि शरीर के भीतर मन, बुद्धि, हड्डियाँ, मांस आदि हजार चीजें हैं न? इसी के उत्तर में कहना पड़ा है कि वह विज्ञानमय है, सभी इंद्रियादि को चलाता है और हृदय के भीतर रहता है, \'विज्ञानमय: प्राणेषु हृद्यंतज्योति: पुरुष\' (4। 3। 7)। उसी के बारे में यह भी लिखा है कि जागरण और सपना इन्हीं दोनों हालतों में वह काम-धाम करता है, लीला करता है ऐसा जान पड़ता है। वह सर्वत्र एक ही है, एक-सा ही है, \'स समान: सन्नुभौलोकावनुसंचरति ध्यायतीव लेलायतीव\' (4। 3। 7)। उसके तीन लोक या क्रीड़ास्थल माने गए हैं। इनमें सुषुप्ति में तो संसार रहता नहीं। वहीं से कभी सपने में जाता और चीजें बना के मौज करता है, तो कभी जाग्रत दशा में आ के, - \'तस्यवाएतस्यपुरुषस्यद्वे एवस्थानेभवत: इदं च परलोक स्थानं च संधयं तृतीयं स्वप्न स्थानं तस्मिन्संध्ये स्थाने तिष्ठन्नेते उभे स्थाने पश्यति\' (4। 3। 8)। यहाँ संधि-स्थान को स्वप्न-स्थान कहा है। स्वप्न का अर्थ है गाढ़ नींद या सुषुप्ति। यहीं से दोनों में पहुँचता है। जाग्रत को इहलोक और सपने को परलोक कहा है।

इसके बाद से लेकर 18वें ब्राह्मण के अंत तक सपने की सृष्टि के बनाने और बिगाड़ने की बात सविस्तार कही गई और लीला बताई गई है। आत्मा ही सब कुछ करती है यह भी बताया गया है। अनंतर गाढ़ नींद या सुषुप्ति का प्रसंग ला के उसका चित्र खींचा गया है। वहाँ यह प्रश्न उठा है कि सुषुप्ति में कोई पदार्थ आत्मा को मालूम क्यों नहीं होता है? पदार्थ तो हजारों हैं। शरीर के भीतर ही जाने कितने हैं। फिर उनका अनुभव वहाँ आत्मा को होता क्यों नहीं? इसी का उत्तर बहुत ही विस्तार के साथ 31वें ब्राह्मण के अंत तक दिया गया है और कहा गया है कि अगर सचमुच कोई दूसरा भी पदार्थ उसके अलावे हो तब न उसे देखे, सुने, सूँघे, छुए, खाए, पीए दरअसल तो आत्मा के सिवाय और कुछ हई नहीं - \'न तु तद्द्वितीयमस्ति\'। यही बात बीसियों बार कही गई है। सचमुच ही आश्चर्य है कि यदि इंद्रियों से देखे-सुने न भी तो मन से तो सोचे-विचारे। मगर वहाँ तो कुछ भी नहीं होता। मन को तो बाहर जाना भी नहीं कि इंद्रियों की मदद चाहिए। वह भीतर ही सोचता क्यों नहीं? आखिर सपने में तो मन ही सब कुछ करता है न? फिर सुषुप्ति में भी क्यों नहीं करता? इसीलिए मानना ही पड़ता है कि उस समय आत्मा के सिवाय और कुछ हई नहीं। ठीक ही है, जिसका ज्ञान नहीं उसके अस्तित्व में प्रमाण ही क्या? यदि कहा जाए कि जिसे नींद न हो उसे तो उस समय ज्ञान होता ही है; अतएव वही ज्ञान उन वस्तुओं के लिए प्रमाण होगा, तो प्रश्न होता है कि सुषुप्तिवाले को क्या मालूम कि किसी को ज्ञान होता है? और अस्तित्व का प्रश्न तो उसी के लिए है न? और अगर सभी को सुषुप्ति हो जाए तो? यह असंभव भी नहीं है। प्रलय की ही तरह वह भी हो सकती है। फलत: अद्वैत-तत्त्व को मानना ही पड़ता है।

ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्राम यंस र्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया॥ 61 ।

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत। तत्प्रसादात्परां शांति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥ 62 ॥

हे अर्जुन, सभी प्राणियों के हृदयस्थान में ईश्वर मौजूद रहता है, (और अपनी) मायाशक्ति से उन्हें कठपुतली की तरह घुमाता रहता है। हे भारत, समस्त संसार को उसी का स्वरूप जानो और इसी रूप में उसकी शरण जाओ। उसी की कृपा से परम शांति और शाश्वत स्थान पा जाओगे। 61। 62।

61वें श्लोक की पूरी व्याख्या पहले ही हो चुकी है। 62वें में जो \'सर्वभावेन\' पद है ऐसा ही पद पहले भी \'स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत\' (15। 19) में आया है। अंतर यही है कि वहाँ \'भजति\' है और यहाँ \'शरणं गच्छ\' है। मगर मानी दोनों के एक ही हैं। भजने या शरण जाने का ही रूप \'सर्वभावेन\' कहा है। \'वासुदेव: सर्वमिति\' की ही तरह सभी को आत्मा-परमात्मामय ही देखना यही शरण जाना है।

इस प्रकार उपदेश करके उसका उपसंहार करते हुए अर्जुन को मौका देते हैं कि वह खूब सोच-विचार ले, तभी कुछ करे। कहीं ऐसा न हो कि आवेश में आ के या बातों में पड़ के कुछ कर डाले। क्योंकि ऐसे कामों का नतीजा कभी अच्छा नहीं होता। लेकिन इसी के साथ उसे यह भी याद रखना होगा कि जो उपदेश दिए गए हैं वह ऐसे-वैसे नहीं हैं; किंतु दुर्लभ और गोपनीय से भी गोपनीय हैं। ऐसी बातें शायद ही सुनने को कभी मिलती हैं, कभी मिलें। इसलिए इन पर पूरा गौर करना होगा।

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥ 63 ॥

मैंने तुम्हें यह गोपीनय से भी गोपनीय अक्ल और सोचने-विचारने की बात कही है। इस पर खूब अच्छी तरह सोच-विचार के जो चाहो सो करे। 63।

श्लोक से स्पष्ट है कि जो कुछ उपदेश है वह ज्ञान ही है, न कि और कुछ। चाहे जितनी बातें भी शुरू से अंत तक आई हों सब ज्ञान के ही सिलसिले में आई हैं। गीतोपदेश का असली विषय ज्ञान ही है। उसी के भीतर विज्ञान भी आ जाता है। फिर भी जो यह कह दिया है कि समझ-बूझ के करो और जो चाहो सोई करो, उससे साफ हो जाता है कि आज्ञा या हुक्म की गुंजाइश गीता में है नहीं। यहाँ तो अपने दिल से ही चलने की बात है। यह ठीक है कि जो कुछ करना हो उसे बखूबी समझ-बूझ के करना चाहिए। मगर करना है अपनी ही मर्जी से, अपनी राय से ही, जिसे इच्छा कहते हैं। क्योंकि जवाबदेही तो अपने ही ऊपर आने को है न? फिर दूसरे के दबाव या हुक्म का क्या सवाल? वह क्यों माना जाए? और अगर माना गया तो जवाबदेही करनेवाले पर न हो के आज्ञा देनेवाले पर ही जो हो जाएगी। इस पर तो हमने पहले श्रद्धा के प्रसंग में बहुत लिखा है।

\'अशेषेण विमृश्य\' कहने का एक और भी अभिप्राय है। एक तो विमर्श ही व्यापक चीज है। इसके मानी ही हैं कि सभी पहलुओं पर अच्छी तरह गौर कर लिया जाए। लेकिन जब उसके साथ \'अशेषेण\' भी जुटा है, तब तो कहने का मतलब साफ हो जाता है कि खबरदार, एक बात भी छूटने न पाए। शुरू से यहाँ तक जितनी बातें कही गई हैं सभी को सामने रख के अच्छी तरह उन पर सोचो-विचारो और गौर करो। उसके बाद जिस निश्चय पर पहुँचो उसी के अनुसार काम करो। असल में गीतोपदेश की पूर्वापर बातों को भूल जाने से ही ज्यादा गड़बड़ होती है और लोग कुछ का कुछ निश्चय कर बैठते हैं। दृष्टांत के लिए \'ईश्वर: सर्वभूतानां\' को ही ले सकते हैं। जाने कितनों ने इसका सचमुच ही आत्मा से भिन्न ईश्वर अर्थ करके इस आत्मा को उसके चरणों में झुका दिया है, उसका सेवक और गुलाम बना दिया है। हम तो इसे आत्मा का पतन मानते हैं, न कि और कुछ भी। फिर भी ऐसा ही किया गया है; हालाँकि यदि गीता की ही पहले की बातें याद रहें तो यह बात कभी न हो। \'न कर्त्तृत्वं न कर्माणि (5। 14-15) श्लोकों में आत्मा के ही लिए प्रभु और विभु शब्द आए हैं, जो आमतौर से ईश्वर के ही लिए प्रयुक्त होते हैं। बल्कि इसी से बहुतेरे यहाँ भी धोखा खा गए हैं और ईश्वर ही अर्थ कर डाला है; हालाँकि हमने यह भूल वहीं सुझा दी है।

मगर इसे भी जाने दीजिए। क्योंकि यहाँ विवाद की गुंजाइश है। \'भर्त्ता भोक्ता महेश्वर: परमात्मेति चाप्युक्त:\' (13। 22) में तो साफ ही जीवात्मा को ही ईश्वर क्या महेश्वर और परमात्मा तक कहा है, परम-पुरुष तक कहा है। कहा ही नहीं है, बल्कि ऐसा ही पहले से कहा जाता है यह बताया है। यहाँ विवाद की जगह हई नहीं। इसके बादवाले \'तिष्ठन्तं परमेश्वरम्\' (13। 27) को हम छोड़ ही देते हैं; हालाँकि वहाँ भी परमेश्वर शब्द जीवात्मा के ही लिए आया है। मगर \'शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर:\' (15। 8) में तो साफ ही मरने-जीने के प्रसंग में ईश्वर शब्द जीवात्मा के ही लिए आया है। यहाँ तो संदेह के लिए जरा भी स्थान नहीं है। फिर भी \'ईश्वर: सर्वभूतानां\' में अगर ईश्वर का अर्थ आत्मा न करके और कुछ किया जाए तो मानना ही होगा कि पूर्वापर विचार के बिना ही ऐसा होता है। फलत: \'विमृश्यैतदशेषेण\' कहना जरूरी था। यही वजह है कि इतना कहने के बाद भी एक बार और यही बातें शब्दांतर में चलते-चलाते याद दिला देते हैं, ताकि धोखे की भी गुंजाइश रहने न पाए और अर्जुन का निश्चय सही और दुरुस्त हो के ही रहे।


   0
0 Comments